रास्तों में है अँधेरा घना
या फिर खुद की ही हैं आँखें बंद ?
राह है लंबी अंतहीन
या खुद की ही है चाल मंद ?
क्यों न जान पाता कभी ये मन
क्यों होती ये दुविधा ये उलझन
जो पाता देख स्वयं के पार
तो जान पाता, क्या है यह
बंधन, या खुद का ही विकार
आसमान से बरसी धुंध
या नयनों की ही है ज्योति भंग ?
है भीड़ बहुत इन राहों में
या खुद का ही ह्रदय है तंग?
कैसी अजब ये प्रश्नों की भूलभुलैया है
राह में है ठोकर कभी कभी अँधेरा विकराल है
उलझनों का जाल बुनते ये अंतहीन सवाल हैं
कौन दिखाए राह..न जाने कौन खिवैया है
ऐसी अजब यह प्रश्नों की भूलभुलैया है
है राह काँटों भरी पथरीली
या नाज़ुक हैं अपनी ही एड़ियाँ ?
हैं सफर में मुश्किलें अनेक
या खुद ही बाँधी हैं ये बेड़ियाँ ?
जो है अभीष्ट..जो है कामना
जाऊं उस पथ पर करूँ कैसे सामना
उस धुंध का..उस अन्धकार का
पथरीली राहों से एड़ियाँ में पड़ती दरार का
पर
असंभव है रुकना चलना है अविराम
देरी है बस कुछ पल की ..
फिर होगी मेरी उड़ान ….